Thursday 31 December 2015

नए साल का स्वागत (Happy New Year 2016)

दोस्तों साल जाने को है। आज 31 दिसबंर हो गई है। 2015 हमारे पास से आहिस्ता आहिस्ता गुजर जाएगा, और हमें 2016 की गोद में सौंप जाएगा। 2016 की अंगुली पकड़कर हमें फिर से 365 पग भरने है। साल बीता, हाल बीता। जो कुछ पाया, उससे कहीं अधिक पाने की ख्वाहिश के साथ नए साल का स्वागत किया जाए। जो साथी पग पग पर साथ है, आगे भी साथ रहे और जो जीवन की आपाधापी में कच्ची, पक्की कीमतों पर साथ छोड़ गए, वें हर हाल में खुश रहे।जो साथी इस साल बिछड़ गए, भगवान उन्हें फिर किसी नए जन्म में हमसे मिलवा दे। नया साल, नई उम्मीदे लेकर आता है। व्यक्तिगत रूप से हम सब नए साल की शुरूआत में कुछ नया करने की ठानते है। चूुकि अब मानवता अपने चरम पर है, इसिलिए उसे अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए हमें सामूहिक रूप से भी कुछ नया करने की ठाननी होगी। हम सब संकल्प करे कि फिर से कोई निर्भया अपनी बदहाली पर आंसू बहाते हुए दम नहीं तोड़ेगी, फिर से किसी औरत को तेजाब का दंश न झेलना पड़े, फिर से किसी फौजी की बेटी हमसे यह सवाल न पूछे कि फौजी का परिवार ही क्यों रोता है?, फिर से हमे न्याय न दिलवा पाने के कारण वंचितों से आंख न चुरानी पड़े, ऐसे समाज की दिशा में हम बढ सकते है जहां सुरक्षा हो तो साामूहिक, खुशी हो तो सामूहिक रूप से और किसी का गम हो तो भी हम सामूहिक रूप से साथ हो। 121 करोड़ का देश है, लेकिन हम स्वंय में ब्रह्मा है- अहं ब्रह्मास्मि। हम खुद को बदले, और देखिए धीरे धीरे पूरा समाज बदलता हुआ दिखेगा। व्यक्तिगत रूप से भी हम ऐसे प्रयास करे जिससे हमें खुशी मिले, हमारा कदम आगे बढें, हम स्वस्थ रहे और सुरक्षित रहे। मेरा विजन स्पष्ट है- 2016 में मैं अपनी दो पुस्तके प्रकाशित करवाने जा रहा हूं, साथ ही ज्यादा से ज्यादा अध्ययन पर मेरा जोर रहेगा। आप सब को नए साल की अशेष हार्दिक शुभकामनाएं। यह ब्लाॅग इस साल के अंत तक अपने 12000 पेज व्यूज तक पहुंच गया है, नए साल में और ज्यादा पाठक इससे जुड़े, ऐसी मुझे आशा है।

आंसू हंसी की धार में खो जाए तो क्या बात है ,
जिसे चाहा टूटके हमने वो आए तो क्या बात है ,
थाम कर  हाथ में हाथ चले फिर से कुछ कदम ,
नए साल में ऐसा कुछ हो जाए तो क्या बात है। - राम लखारा 'विपुल'



Tuesday 29 December 2015

प्रकाशित - कविता

पश्चिमी राजस्थान के जोधपुर में संपादक श्री अनिल अनवर के संपादन में प्रकाशित हो रही साहित्यिक पत्रिका मरू गुलशन में प्रकाशित एक कविता -


Hindi Poem
Ram Lakhara Vipul Published Poem

Friday 18 December 2015

रिश्वत (Short Story in Hindi)

रिश्वत (Short Story in Hindi)
रामदीन और कालूराम दोनो दोस्त एक दूसरे से आज लगभग पच्चीस वर्षों बाद एक बगीचे में मिले। दोनों एक दूसरे को देखकर यहीं सोच रहें थे कि वक्त की धार कैसे उन दोनों की जवानी को बुढापे की ओर ले जा रही थी। कालूराम जल विभाग में अधिकारी के पद पर हुआ करतें थे और रामदीन उसी कार्यालय में एक साधारण से बाबू थें। पदों में अंतर होने के बावजूद दोनों अच्छे मित्र हुआ करते थे। दोनों अब सेवानिवृति पा चुके थें और अपने अपने बच्चों के साथ अलग अलग शहरों मे रह रहें थे।
रामदीन और कालूराम दोनों गले मिले और गुलमोहर के पौधे के पास एक बेंच पर बैठ गये। दोनों एक दूसरे के विगत वर्षों के बारे में चर्चा करने को उत्सुक थें। रामदीन ने बताया कि उसके दोनों लड़के और एक लड़की अब बड़ें हो चुके हैं, और अपने घर बसा चुके हैं। बातचीत को जारी रखते हुए रामदीन बोलता रहा कि उसका बड़ा बेटा आर्मी में असिस्टेंट कमाण्डेंट हैं और एक खुशहाल जिंदगी जी रहा हैं। गर्व और खुशी के मिश्रण को छलकाते हुए अपने छोटे बेटे के बारे में बताते हुए वों कहने लगे कि मेरा छोटा बेटा एक सफल व्यवसायी बन चुका हैं और देशभर में उसकी व्यवसायिक शाखाएँ हैं। उसने यह भी बताया कि अपने छोटे बेटे के कारण ही वो दुनिया की सैर तक कर चुका हैं। आज स्वंय उसके पास सुख भी है और सम्पति भी। मेरी बेटी की शादी मैने इतने धूमधाम से की है कि उस शादी की मिसाल आज तक हमारे समाज में दी जाती हैं। बेटी की शादी से उसे याद आया कि कालूराम तो शादी में आया ही नही था सो उसने लगे हाथ ही शिकायत कर दी क्यो भाई कालूराम तुम शादी में क्यों नहीं आये? कालूराम की जैसे तंद्रा टूट गयी थी। बोले कि उस समय किसी प्रोजेक्ट मे उलझे होने के कारण वह नहीं आ पाया था।
रामदीन जवाब से संतुष्ट हो बोले कि मेरे जवाई एक निजी कम्पनी में डिवीजन मैनेजर है और आज कम्पनी की सभी सुविधाओं का उपभोग कर रहे हैं। अपनी बेटी के सुखद जीवन की अनुभूति रामदीन की आवाज से ही झलक रहीं थी। इसी तरह रामदीन अपने परिवार के बारे में लगभग आधे घंटे तक बताता रहा।
रामदीन की बातें सुनकर कालूराम एक गहरे ध्यान में खो गया था। उसे याद आ रहा था कैसे रामदीन उस समय अपनी बाबू की तन्खवाह से अपने परिवार का गुजारा चलाने के साथ ही अपने बच्चों को पढा रहा था। उसकी दयनीय स्थिति को देखकर हमेशा कालूराम उसे यहीं शिक्षा देता था कि वो थोड़ी बहुत इधर उधर की कमाई कर लिया करे ताकि अपने बच्चों को वो आराम से पढ़ा सके। पर रामदीन हमेशा कालूराम की बातों का खण्डन किया करता था। रामदीन हमेशा यही तर्क देता था कि मैं अपने बच्चों के पेट में रिश्वत का एक पैसा भी नहीं जाने देना चाहता। अगर मैं रिश्वत लूंगा तो यह तय हैं कि मेरे बच्चे सफल नहीं होंगे और दूसरों के सामने हाथ फैलाते रहेंगें जो मुझे हरगिज मंजूर नहीं। मेरे मानना हैं कि चोरी का पैसा चोर ही बनायेगा। रामदीन की ऐसी बातें सूनकर कालूराम हमेशा उसका यहीं मजाक उड़ाता था कि रामदीन तुम बहुत भले हो। कल की कल देखी जायेगी। अपना आज तो सुधारों कल अपने आप सुधर जायेगा। उसे रामदीन की बाते हमेंशा पुराने विचार लगते थे। वो यह समझता था कि रामदीन समय से काफी पीछे चल रहा हैं जिसका अंदाजा उसे वक्त आने पर पता चलेगा।
कालूराम इस तरह अपने ध्यान में खोते जा रहा था कि किस तरह वो अपने पद का दुरूपयोग कर पैसे बटोर रहा था। उन पैसों से उसने अपने बच्चों को अ्रग्रेजी माध्यम के विद्यालय में शिक्षा दी और अच्छी से अच्छी सुविधाए दी। किस तरह उसके बच्चे खूब आराम से रहते थे और अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए उसने पास के शहर में भेज दिया था। उसके दो लड़के ही थे और हर पिता की तरह वों भी उनका भविष्य सफल करना चाहता था। पौधे में खाद की जगह यदि दही डाल दिया जाये तो पौधा नष्ट तो होगा ही होगा साथ ही भविष्य मे भी उस जगह से किसी और पौधे का उगना अंसभव हैं। ऐसा ही कालूराम के साथ भी हुआ। जिस कमाई से उसने अपने बच्चों का पालन पोषण किया था वो ही कमाई उसकी दुश्मन बन गयी थी। उसे याद आ रहा था कि किस तरह उसके बड़े बेटे ने शराब और स्मैक का नशा सीख लिया था, और उसका नशा छुड़ाने के लिए किस तरह उसने अपनी सारी पूंजी दांव पर लगा दी थी। रामदीन से बिछड़ने के बाद उसकी बाते कालूराम को हमेशा यह याद दिलाती थी कि रामदीन उस समय सही था और वो गलत। फिर उसका छोटा बेटा तो पढ़ाई में बेहद कमजोर निकला और पढ़ाई को अधूरी छोड़कर एक निजी दूकान में नौकरी करने लगा। बच्चों की आदतो की वजह से उसका सारी जायदाद चली गयी थी और सम्पति  के नाम पर उसके पास सिर्फ अपना घर बचा था। उसका गुजारा आज भी पेंशन की वजह से चलता था। उसे आज यह एहसास हो चला था कि चोरी का माल हमेशा मोरी में ही जाता हैं। अपने किये पर वो आज भी पछता रहा हैं, उसे इस बात की सीख भी मिली थी कि किस तरह रामदीन के सिद्धांत उसे सुखी जीवन की ओर ले जा रहे थे और जिस वक्त का अंदाजा वो रामदीन के साथ लगा रहा था वो वक्त आज स्वंय वह जी रहा था।

                                                        लेखक - राम लखारा

Wednesday 16 December 2015

दोहे (Hindi Dohe)

Ram Lakhara Vipul Poetry
अस्ताचल के सूर्य से, सब लेते मुंह फेर।
अपनों की या गैर की, परख करे अंधेर।।
- राम लखारा

वाणी का सब खेल है, अमरित औ विष दोय।
एक गैर अपना करै, दूजे दूरी होय।।
- राम लखारा

Saturday 12 December 2015

कविता- मेरा परिचय

Poetry of Ram Lakhara


सागर से परित्यक्त   होकर  भी 
जीवन  का   नव    नाद  फूंकता
कोलाहल   के   दुरूह    दौर   में
अनहद   एक   आवाज   घोलता।

बिछड़न  का  हूं  प्रथम  स्वर मैं
प्रथम  शब्द  हूं  बिरह  गीत  का
प्रथम  प्रमाण  हूं  पल  भर में ही
मिटने  वाली  क्षणिक  प्रीत  का।

अधिक  नहीं  है   मेरा  परिचय 
कभी  राजा  रहा    अब  रंक   हूं
प्रिय  मिलन   की  राग   छेड़ता
चिर   विरह   लिप्त  मैं  शंख हूं।

                                                     -राम लखारा 'विपुल'

Monday 7 December 2015

गीत - मैं बाती बन

 मैं बाती बन जलूं रात भर- 


Ram Lakhara Vipul Poem and Lyrics

Friday 4 December 2015

कुछ शायरी ताली पर (Shayari for Talee)

मेरे इस ब्लाग पर पाठकों ने ताली पर शायरी को भी खूब सराहा है इसलिए मैं इस बार अपने पाठकों और प्रशंसकों के लिए कुछ और शायरी ताली पर लिखकर लाया हूं।-

कार्यक्रम में खुशियों का महोत्सव हो जाएगा,
समंदर में लहरों का महोत्सव हो जाएगा,
शोभा आपकी और हमारी दो दूनी चार होगी
जब आपकी तालियों का महोत्सव हो जाएगा।

बंधन में है दिल एक बहाली तो बनती है
नीरस से माहौल में एक खुशहाली तो बनती है
यह रंग जो बिखरे है पर्दें पर गर समेटने है तो
जनाब आपकी एक ताली तो बनती है।

दिल से दिल को प्यार भरा पैगाम दिया जाए
होंठों से तारीफ का कोई ईनाम दिया जाएं
आपका और हमार फासला मिट जाएगा पल में
गर तालियों का दिल से सलाम दिया जाए।

- राम लखारा विपुल

Read More Talee Shayari ताली पर शायरी

Part 1 Click Here

Part 3 Click Here

Saturday 3 January 2015

श्रृंगार रस मुक्तक

Ram Lakhara poetry
 जो तुझसे प्यार है मेरा वो बहुतो को चुभता है ,
जैसे सुर्ख गुलाबी फूल संग काँटों के उगता है ,
जातां कितने भी कर ले वो मगर मालूम नहीं उनको
मैं तो वो मुसाफिर हु जो बस मंजिल पर रुकता है।
-राम लखारा

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